गुरुवार, 17 मई 2012

कहानी ०2- अपना घरौंदा

कहानी ०2- अपना घरौंदा -अनिल अयान

                       बेडरूम का दरवाजा जो हलके से बंद था , जानकी ने खोला तो देखा की उनके पति रामलाल अपने चिंतन में मगन माथे में हाथ रखे बिस्तर में लेते हुए थे, दरवाजा खुलने की आवाज से स्वप्न लोक भंग हुआ और
            उन्होंने स्तब्धता से पूंछा- "अच्छा तो सब सो गए" .
"हा राम तो खाना खा कर अपने इम्तिहान की तैयारी कर रहा है और गुडिया टी वि देखा रही है."
"लाओ जी पैर दबा देती हूँ , थक गए होगे आखिर कार तुमने और राम ने मिल कार सारा सामान यहाँ रखवाया था,."                इस तरह जानकी रामलाल जी पैर दबाने लगी
.            उसने अपनी बात जारी रखते हुए कहा  "आज दोनों ही काफी खुश नजर आ रहे थे. उ नहे अपने घर की ख़ुशी साफ नजर आ रही थी. वरना कब तक मकान मालिक की धौंश में रहते अब दोनों ही बड़े हो गए थे."
       तभी जानकी ने देखा के रामलाल सो गए है. जानकी ने उन्हें चादर से ओढा कर खुद उनके बगल में लेट गयी. और पुनः बीती बातो पे खो गयी..
          उसे आज भी याद है जब राम नगर की फैक्ट्री बंद हुयी तो दोनों बच्चो को उसके साथ लेकर रामलाल जो रायपुर आगये थे.साथ में थोडा सा सामान और एक अनजान शहर. बड़ी मुश्किल से एक प्राइवेट नौकरी खोजा और और एक कमरे के घर में बसर किया. मात्र पंद्रह सौ की नौकरी में पांच साल गुजरे. एक गरीबी का माहौल रहा.बच्चो की परवरिश में कोई कसार नहीं छोड़ी गयी. दोनों को शहर की अच्छी स्कूल में दाखिला कराया गया. जब बच्चे बड़े हो गए. और रामलाल जी का फंड निकला तो पहले राम की इच्छा से एक घर बनवाया गया.बैंक से कुछ लोन भी लिया रामलाल जी ने;
                  उसे एहसास हुआ की जब से लोन लिया है तब से रामलाल जी का मन उदास सा है. तभी उसे एक कोमल स्पर्श महसूस होताहै वो स्वप्नलोक से बाहर आती है
. राम लाल ने अचानक पूंछा " नींद नहीं आरही है क्या सो जाओ रात का तीसरा पहर चालू हो गया .मुझे ड्यूटी के लिए लेट करोगी..सो जाओ" और उसके बाद वो फिर से अपनी नींद में ग़ुम हो जाते है
              . जानकी आँख मूंदे लेती रहती है. उसे मन में ये भय बना रहता है कि यदि उसके पति लोन नहीं चुकाते तो ये घर कुर्क हो जायेगा. इसी बात को सोचते सोचते उसे कब नींद लग जाती है उसे खुद ही पता नहीं चल पता.
               सुबह होती है. नयी उमंग के साथ सभी अपनी अपनी दिनचर्या में लग जाते है. वख्त लगातार गुजरता चला जाता हो. राम कि नौकरी लग जाते है एक मैनेजर कि पोस्ट में. राम लाल अपनी ड्यूटी करने में लगे हुए थे. गुडिया कॉलेज की पढाई पूरी करके एक स्कूल में पढ़ाने लगी. सभी ख़ुशी से रह रहे थे.
            तभी अचानक एक शाम को राम लाल जी एक सरकारी लिफाफा लेकर घर में दाखिल हुए, उनकी चिंता साफ उनके माथे में दिख रही थी.उन्होंने वो लिफाफा जानकी को थमाया. जानकी ने उस लिफाफे को खोल कर देखा तो लोन को पंद्रह दिन के अन्दर जमा करने या घर कुर्क करवाने की नोटिस थी. उसने रामलाल जी को संबल दिया. रामलाल जी ने घर के कागज़ मांगे. और बाहर की और चल दिए.
           उन्होंने एक जगह इन कागजातों को गिरवी रखा और जो पैसे मिले उसमे अपनी जमा पूँजी मिला कर बैंक का लोन चुका कर आये.अब घर तो उनका था पर एक जगह गिरवी रखा हुआ था. उन्हें इस बात का आभास हो गया था. की घरौंदे को बनाना जितना सरल है उसे अपना बनाये रखना उतना ही कठिन होता है.
           ये बात  जब राम को पता चली तो वो उस कागजात को फिर से अपनी मेहनत की कमाई से वापस ले आया. अब ये उसके पिता जी की खुद की संपत्ति थी. कोई गिरवी रखी जागीर नहीं. जैसे ही उसने ये खबर रामलाल जी को दिया तो राम लाल जी की आँखों से आंशुओ की धार बह उठी और लबो पे हलकी सी मुस्कान खिल उठी.सायद अब उनको सच्चा सुकून था अपने एक छोटे से घरौंदे में रहने का था और अपने बाजुवों पे...............