मंगलवार, 12 मार्च 2024

अखबार वाले संजय भैया

 अखबार वाले संजय भैया 


संजय नाम से कोई ना कोई मेरी कहानी का किरदार हो जाता है। इस बार ही ले लो संजय भैया अखबार देने वाले। 

इस बार अखबार का पैसा लेने आए तो कार्यालय में लग गया दरबार हम दोनों का। जबसे मारुति नगर में घर है हमारा तब से अखबार देने का काम संजय भैया कर रहे हैं।

संजय भैया मुख्त्यारगंज में रहते हैं, जब हम लोग पंडित हरीराम उमरिया जी के यहां किराये से रहते थे तो तो उनके बड़े भैया अखबार देते थे। अखबार और मेरा एक विशेष संबंध रहा। पहले अपना परीक्षा परिणाम देखने के लिए, फिर नवभारत में सृजन पेज पर अपनी रचनाएं देखने के लिए, सृजन बहुत पहले सुरेश दाहिया जी नवभारत में देखा करते थे। उसके बाद साहित्यिक गतिविधियां होती तो उसके समाचारों की कटिंग के लिए, अब तो सभी अखबार ई पेपर्स के रूप में मोबाइल में उपलब्ध होते है।

मुझे याद है, जब मै सिंधु स्कूल में और स्वशासी महाविद्यालय में पढ़ता था तो स्वामी चौराहे में पांड़ेय किराना स्टोर में पेपर पढ़ने या फि उरमलिया जी के यहाँ नवभारत और दैनिक भास्कर पेपर पढ़ने जरूर जाता है। फइर जब आमदनी हुई तो अखबार खरीदकर पढ़ने लगे। वह सिलसिला आज भी जारी है और भविष्य में भी जारी रहेगा।

संजय भैया हमारे रोटीन में रहने वाले इंशान हैं,उनका इंतजार पेपर पढ़ने के लिए पहले हमारी मम्मी करती थी उसके पहले जब भी हमारी दादी आई सतना वो भी अखबार के लिये किया करती थी और अब पापा जी के जीवन का अहम हिस्सा अखबार और अखबार बांटने वाले संजय भैया हैं।

इस बार संजय भैया फुरसत में दिखे तो मैने भी उनके साथ दरबार करना शुरु कर दिया, बातों ही बातों में पता चला कि वो चार सौ अखबार आज भी हमारे मारुति नगर में बाँटते है। मैने कहा भैया इसमें क्या कमाई होती है। 

-कहाँ अनिल भैया, बचत करने पर हर पेपर में पचास पैसे बच जाते हैं, अब तो यह आदत में शामिल है तो कर रहे हैं, नहीं तो कहाँ अब साइकिल चलाई होती है, और कहाँ -लोग अखबार पढ़ते हैं।

आने वाली पीढ़ी क्या अखबार बाँटेगी? मैने पूँछा

- या मानी भैया, हमरे बाद कौनो य अखबार न बाँटी, अबहिन न ही सोहात हमरे बच्चन का।

तो भैया अखबार बस है या कुछ और भी काम धाम करते हैं आप,

हुए गा, सुबह अखबार बाटेंन और ओखर बाद दिन भर दुकान किहेन। हमार पिता जी त अखबारै बस बांटत् रहें। पर अब कहाँ गुजारा है, मँहगाई बहुत कै ही।

तो भैया सब समय से पैसा दे देते हैं। या परेशान करते हैं।

जब कोविड़ रहा तो अखबार लेते थे लोग या बंद कर दिये थे?

कोरोनाकाल भी गजब रहा है भैया, बहुत कम लोग अखबार लेत रहें, पहले दिन भर धूप मा अखबार पड़ा रहे फिर सांझ के उठा लेत रहें। कोरोनाकाल तो केहुका ना भूली, ऐसन महामारी जीवन म न देखन भैया। वहिन समय त किराने केर दुकान हम कीन्हेन, और प्लाट खरीद के घर बनवायेन। 

मतलब कोरोना में आपने मौके का फायदा उठाया।

वो ठहाका मारकर हंस दिये

ऐसन है भैया बीस परसेंट पैसा बुला के देत हें, पर अधिक्तर रोबाय मारत हें, पैसा लेंय के खातिर बहुत चक्कर लगावै क पड़त है।

हमी याद है कि पहिले पचास रुपिया महीना रहा है, तबहुँ लोगन के पास समय से देंय का पैसा नहीं रहा, अब तो डेढ़ सौ लागत है तो और बेगारी छाई रहत है, सब ज्यादा ही  खर्च करत हें दूसर कामन माँ पर अखबार के खातिर जेब खाली रहत ही।

मै संजय भैया की मजबूरी और पीड़ा समझ रहा था, वो आखिर कहना क्या चाह्ते थे, पहले तो अखबार लोग शौक से खरीदते, पढ़ते और रखते थे, परन्तु अब इतना महत्व कहां रह गया।

संजय भैया कौन सा अखबार सबसे ज्यादा बेंच लेते हैं,

भैया दैनिक भास्कर की बिक्री ३००, पत्रिका १००, और छुट पुट स्टार, स्वदेश, जनसंदेश बिकत है। कमीशन भास्कर म कम है औरन की जगह। भास्कर और पत्रिका आगे भी चलत रही, बाती त ऐसनै आहें।

मुझे याद है जब मै संगोष्टियों के समाचार देने अखबारों में जाया करता था तो स्टेशन रोड़ में होटल शिवम के नीचे  रोड़ में बोरी बिछाकर एक बुजुर्ग देश दुनिया के सभी अखबार बाँटा करते हैं,  सुबह से उनके पास खूब भीड़ रहा करती थी। इस समय दिखते नहीं हैं, क्या हुआ उनका।

उईं या दुनिया छोड़कै चले गें, बहुत साल अखबार बेचिन। अबहु एक दुई जने वहिन ठाँय अखबार बेंचैं का बैठत जरूर हैं पर उतनी बिक्री नहीं आय। 

कितना हुआ आपका भैया इस महीने

वही डेढ़ सौ,।

मैने उनको पचास की तीन नोट दी, वो उसे अपने जेब में डालते हुए बोले।

अनिल भैया चलित हैन कुछ और उगाही कर लीन जाय, एजेंसी में कल सब जोड़ जाड़ के देंय का पडी, तब हमार कमीशन बनी।

ठीक है भैया, फिर मुलाकात होती है।

संजय भैया जैसे व्यक्ति आज भी अखबार को समाज में बाँटकर जन सुलभ बनाये हुए हैं, वरना कहाँ लोगों को अखबार खरीदने की फुर्सत है और कहाँ पढ़ने की फुर्सत है।


अनिल अयान

 


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